Kamlesh Kamal
कमलेश कमल

माँ दुर्गा को आदिशक्ति कहा गया है अर्थात् सभी शक्तियाँ इन्हीं से निःसृत होती हैं। यही सृष्टि की नियामिका शक्ति हैं, साथ ही अखिल ब्रहमाण्ड की आधारशिला भी। यही अखिल ब्रह्माण्ड को नियोजित, नियमित, निर्देशित व संचालित करने वाली हैं और अपने दिव्य स्पंदनों से स्पंदित करने वाली भी।

लेकिन इस आदि शक्ति और इनके नामों की क्या व्याख्या हो? अलग-अलग संदर्भों में भक्त, साधक, शोधार्थी, जिज्ञासु, ज्ञानी और अर्थार्थी इस आदि शक्ति के नामों और संबध्द उपासना पद्धति के अलग-अलग अर्थ व्याख्यायित करते हैं।

मनोभिलषित वस्तु या स्थिति की प्राप्ति के लिए वर्ष की चारों ऋतु-संधियों (चैत्र, आषाढ़, आश्विन, माघ) पर शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक मनाया जाने वाला, आदिशक्ति की आराधना का यह महान् पर्व नवरात्र भाषा-विज्ञान के दृष्टिकोण से भी अत्यंत ही रोचक है। इनमें भी शारदीय नवरात्र का विशेष महत्त्व है।

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शाक्त संप्रदाय में दुनिया की पराशक्ति, सर्वोच्च देवी के रूप में अधिष्ठित श्री दुर्गा की आराधना का यह पर्व अपने में भारतीय संस्कृति, धर्म और जीवन-दर्शन के विविध पहलुओं को समाहित किए हुए है।

अगर दुर्गा शब्द को ही लें, तो वेदों में दुर्गा का उल्लेख नहीं है। उपनिषदों में उमा या हेमवती शब्द हैं, जबकि पुराण में आदिशक्ति की चर्चा की गई है।

दुर्गा शब्द ‘दुर्ग’ में ‘आ’ प्रत्यय जोड़कर बना है। इसका एक अर्थ है –”जो शक्ति दुर्ग की रक्षा करती हैं, दुर्गा हैं”। यह ‘दुर्ग’ साधक के लिए उसका शरीर हो सकता है, उसकी चेतना हो सकती है। भक्त के लिए सर्वशक्तिस्वरूपिणी दुर्गतिनाशिनी ही दुर्गा है। पर्यावरणविद् के लिए यही ‘दुर्ग’ ( कठिनता से जाए जा सकने योग्य) पृथ्वी के लिए उसका पर्यावरण हो सकता है, जिसमें जीवन है। तो, व्यष्टि से समष्टि तक की रक्षा करने वाली दुर्गा ही हैं।

व्युत्पत्तिगत दृष्टिकोण से ‘दुर्गा’ शब्द दुर् और गः या दुर् और गम से बना है। दुर् का अर्थ मुश्किल, कठिन आदि है। गः या गम् का अर्थ जाना या गमन करना है। इस तरह दुर्गा का अर्थ हुआ जहाँ जाना कठिन हो, या जिसे पाना कठिन हो। यह किसी साधक के लिए सर्वोच्च चेतना हो सकती है, भक्तों के लिए भगवत्ता की प्राप्ति हो सकती है, तो किसी योगी के लिए मूलाधार से सहस्रार की यात्रा हो सकती है।

देखा जाए तो पृथ्वी पर सबसे दुर्गम स्थान ऊँचे-ऊँचे पर्वत होते हैं, और यह अनायास ही नहीं है कि माँ दुर्गा के लगभग सभी मंदिर ऊँचे-ऊँचे पर्वतों पर हैं, दुर्गम जगहों पर हैं ; जहाँ जाने के लिए साधना करनी पड़ती है। यही कारण है कि दुर्गा को ‘पहाड़ों वाली माँ’ भी कहा जाता है।

माँ दुर्गा को ‘महिषासुर मर्दिनी’ भी कहा गया है। ‘महिषासुर’ सामान्य जनों के लिए एक भैंसे की आकृति वाला राक्षस है, लेकिन भाषा-विज्ञान की दृष्टि से महिषासुर शब्द ‘महिष’ और ‘असुर’ के योग से बना है।

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महिष शब्द ‘मह्’ धातु से बना है जिसका अर्थ महान् , बलवान्, शक्तिमान् आदि होता है। इस तरह से ‘महिष’ का अर्थ महान् होता है और इसी का स्त्रीलिंग रूप महिषी है। राजमहिषी राज्य की प्रथमस्त्री या महारानी होती है। तो, महिषासुर का अर्थ हुआ ‘महान् असुर’। असुर को राक्षस भी कहा जाता है और अ(बिना) सुर का भी कहा जा सकता है। तो, हमारी चेतना का ताल या सुर का बिगड़ना ही अंदर का ‘अ-सुर है। दूसरे शब्दों में विकार का आना ही आसुरी वृत्ति का आना है। इस प्रकार महिषासुर का अर्थ हुआ: ‘महान् है जो असुर’ (जो हमारे अंदर ही होता है, कहीं बाहर नहीं।) नवरात्र वस्तुतः अपने अंदर की इस आसुरी वृत्ति को समाप्त कर परम- चेतना की अवस्था को प्राप्त करने के लिए ही मनाया जाता है।

दुर्गा को जगदंबा भी कहा जाता है जगदंबा बना है जगत् +अम्बा से। अर्थात् आदिशक्ति ही जगत् की अम्बा (माँ) हैं (जगज्जननी भी), क्योंकि सभी शक्तियों की स्रोत वही हैं।

कहते हैं कि माँ ने धूम-राक्षस का वध किया। धूम नाम का कोई राक्षस शायद नहीं रहा हो, लेकिन इतना तो तय है की धूम या धुँआ अज्ञानता का प्रतीक है। तो, प्रतीक में निहितार्थ यह है कि माँ दुर्गा की उपासना से अज्ञानता रूपी- राक्षस का नाश होता है।

इसे रक्त-बीज का वध करने वाली भी कहा गया है। रक्त और बीज हमारे भौतिक रूप हमारी जडता के प्रतीक हैं, न कि रक्त और बीज नाम के दो राक्षस थे। आदमी रक्त और बीज से ही तो बनता है। रक्तबीज का वध करने वाली माँ का अर्थ जड़त्व का नाश कर अमृत देने वाली होता है, इसलिए ही तो माँ को अमृत-फल-दायिनी कहा गया है।

भारतीय सांस्कृतिक अवधारणाओं के गह्वर में झाँके तो स्त्री संबंध में भारतीय मानसिकता सदैव उच्च और उदात्त रही है। यहाँ देवीय रूप में भी स्त्री को स्वर्णाभ आभा, लाल वस्त्रों और रत्नों से दीपती लक्ष्मी के रूप में देखने की कामना अधिक की गई है इसकी तुलना में हंसवाहिनी, ज्ञानदायिनी और श्वेतांबरा के रूप में देखने की कामना अपेक्षाकृत कम। श्वेत विराग का रूपक है और रक्तवर्ण अनुराग का रूपक है। अनुराग विराग से अधिक प्रभावी है अतः स्त्री को भी इसी रूप में देखने की लालसा हमारी संस्कृति में रही है।

चंड-मुंड का वध करना भी प्रतीकात्मक है। चंड हमारी चिंता या अज्ञानता है और मुंड हमारा सिर है और अहंकार का प्रतीक है। तो, माँ दुर्गा हमारे अहंकार का नाश करने वाली भी हैं। माता के रौद्र रूप में जो गले में मुंडमाला लटकी है, वह वस्तुतः हमारे अहंकार के विविध रूपों की माला है। माँ दुर्गा की उपासना से इस अहंकार रूपी माला का समूल नाश हो जाता है।

इसी तरह माँ दुर्गा के हर नाम से ही उसका अर्थ उद्घाटित हो जाता है। माँ स्त्री-शक्ति को भी रूपायित करती हैं। सनातन की सीख है कि स्त्री अगर किंचित् कुछ अर्थों में वंचिता है; तो वह मुक्ति, शक्ति व अधिकारों की पात्रा, अधिकृता व अधिकारिणी भी है। वह आधुनिका समर्था है। वह सदा शिव की पूरक रही है। प्रकृति का पुरुष से या शिव का शक्ति से सहकार समता की धरातल पर है। यथा– भगवान् शिव पर प्रीति रखने वाली (भवप्रीता), भारी या महती तपस्या करने वाली (महातपा), जिस के स्वरूप का कहीं अंत न हो (अनंता), सब को उत्पन्न करने वाली (भाविनी), भावना एवं ध्यान करने वाली (भाव्या), जिससे बढ़कर भव्य कोई और नहीं हो (अभव्या), रेशमी वस्त्र पहनने वाली (पट्टाम्बरपरिधाना), असीम पराक्रम वाली (अमेय विक्रमा) आदि।

नवरात्र की बात करें तो, माँ के नौ रूपों की पूजा होती है, लेकिन मूर्ति एक ही लगती है। यह एक मूर्ति दिखाती है कि नौ रूप नहीं हैं, एक ही रूप है। जैसे एक व्यक्ति कभी पिता, कभी भाई, कभी मित्र तो कभी पुत्र हो सकता है, वैसे ही माता का रूप एक ही है जो अलग-अलग समय में अलग-अलग साधना की अधिष्ठात्री बन जाती हैं, तभी तो कहा गया है- “भेद सहित अभेद की निर्मात्री शक्ति ही दुर्गा है।”

रात्रि अज्ञानता की प्रतीक है और उसमें जागरण अर्थात् साधना से अपने अंदर जाग्रति लानी होती है। इस जागरण हेतु, कालुष्य के नाश हेतु, एक दीपक चाहिए। अंतस-चेतना ही वह दीपक है। उपवास का अर्थ ‘समीप वास’ या ‘अपनी चेतना के पास रहना’ है। व्रत का अर्थ संकल्प है, जो चेतना की सिद्धि के लिए है, तभी तो वह व्रत है।
तो आइए, इन नौ दिनों में हम माता के नौ रूपों के भाषाई और प्रतीकात्मक अर्थ को समझने की कोशिश करते हैं!

शैलपुत्री (माँ का प्रथम रूप )

माँ के नौ रूपों में प्रथम रूप शैलपुत्री या पार्वती का है। ‘शैल’ शब्द ‘शिला’ से बना है और शिला का अर्थ प्रस्तर या पर्वत लिया जा सकता है। इस तरह ‘शैल-पुत्री’ अर्थात् ‘शिला की है जो पुत्री’ उसी को पार्वती (पर्वत की पुत्री) भी कहा जाता है।

पौराणिक संदर्भों के अनुसार भी पार्वती गिरिराज हिमालय की पुत्री हैं, जो उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उनकी पुत्री के रूप में प्रकट हुई थीं। अस्तु, जो शिवत्व के लिए तप करे, वही पार्वती। जो, परिवर्तन करा दे, वह पार्वती।

योग-साधना की दृष्टि से एक साधक मूलाधार चक्र (गुदा ) में अपनी चेतना को संकेंद्रित करता है, यही योग-साधना का आरंभिक स्थल है, परिवर्तन की शुरुआत है। भौतिक सृष्टि चक्र इसी के इर्द-गिर्द घूमता है।

शरीर साधना के निमित्त है। रघुवंश में कालिदास लिखते हैं– “शरीरं माध्यम् खलु धर्म साधनम” अर्थात् जितने भी धर्म हैं उसमें देह की शुचिता आद्य धर्म है। इसी को मानस में तुलसीदास कहते हैं–
“देह धरे कर यह फलु भाई, भजिअ राम सब काम बिहाई।” अर्थात् मनुष्य देह प्राप्ति ऐसा अवसर है जिसमें इस जीवात्मा ने राम-भक्ति (ईश्वर भक्ति) का सुफल प्राप्त कर लिया है।

यह देहधारण भी अगर भारतवर्ष में हो, तो वह और भी उत्तम है। यहाँ मनुष्य तन धारण की महिमा के संदर्भ में देवतागण कहते हैं कि यह स्वर्ग व अपवर्ग से अधिक सुखदायी है। पृथिवी पर आकर पञ्चभौतिक शरीर का यथार्थफल प्राप्त करने के लिए हम मानव शरीर धारण कर तपस्या, ज्ञानविस्तार, भजन, वंदनादि से सुखपूर्व जीवन की सार्थकता प्राप्त करें-

“गायन्ति देवाः किल गीतकानि
धन्यास्तु ते भारत भूमिभागे।
स्वर्गापवर्गास्पदवार्गभूते
भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात्।।
(विष्णु पुराण 2/3/24)

निःसंदेह भारतभूमि में जन्म लेने वाले लोग धन्य हैं। स्वर्ग और अपवर्ग-कल्प इस देश में देवता भी देवत्व को छोड़कर मनुष्य-योनि में जन्म लेना चाहते हैं। इसी बात का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में राम के मुख से मिलता है–
“नेयं स्वर्णपुरी लंका रोचते मम लक्ष्मणः
जननी-जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।।”

इस रूप के प्रतीक के रूप में माँ के दाहिने हाथ में त्रिशूल है। त्रिशूल का अर्थ है: तीन शूल (काँटे) जो सत् रजस् और तमस् की त्रिगुणात्मिका प्रवृत्ति को प्रदर्शित करता हैे। बाएँ हाथ में कमल है, जो चेतना के जाग्रत अवस्था का परिचायक है और संस्कृति का प्रतीक है।

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