अरबिन्द शर्मा (अजनवी)
अरबिन्द शर्मा (अजनवी)

दीवाना बन के आया हूँ,
तेरे मयखाने में साकी।
पीला दे रूप का मदिरा,
मुझे दो घूंट ऐ साकी।।

मुझे मदहोश कर दे तूँ,
पीला के हुस्न का मदिरा।
तुम्हें न छोड़ के जाऊं,
किसी मयखाने में साकी।।

मदिरा से कही ज़्यादा,
मैं तुमसे प्यार करता हूँ।
रहूँ जो दूर हम तुमसे,
तो तुमको याद करता हूँ।।

मुझे मदहोश करती है,
तुम्हारे रूप का हाला।
मुझे दो घूंट होंटो से,
पीला दे जाम ऐ साकी।।

मैं तुमसे प्यार करने की ,
ख़ता हर रोज़ करता हूँ।
ख़ता है प्यार करना तो,
ये ख़ता हर बार करता हूँ।।

हज़ारों लाखों मयखाने,
हैं मिलते राह में मेरे।
किसी मयखाने में तुम सा,
नहीं है जाम ऐ साकी।।

तुम्हारी ज़ुल्फ़ सावन की,
घटा घनघोर लगती है।
तेरे रूखसार की लाली,
मेरे आँखों से कहती है।।

नही तुमसा हंसी अंबर में,
न कोई है ज़माने में।
तूँ बन के नूर आँखों में,
मेरे बस जाना ऐ साकी।।

मुझे दीवाना करती है,
लब, रूखसार की लाली।
जला दो प्रेम का दीपक,
हो मेरे दिल में दीवाली।।

मुझे बाँहों में भर लो तुम,
पीला दो प्रेम का मदिरा।
किसी मयखाने में जाऊं ,
ये ख्वाहिश न रहे साकी।।

अकेला हूँ पथिक भटका हुआ,
जीवन की राहों में।
न कोई साथ है साथी,
अंधेरी रात राहों में।।

अकेले पन के सागर में “अजनवी” डूब न जाये।
बनो पतवार तुम “दीपा”
मेरे मयखाने की साकी।।

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