Kahani: एक पुजारी थे, ईश्वर की भक्ति में लीन रहते थे। सबसे मीठा बोलते और सबका खूब सम्मान करते। लोग भी उन्हें अत्यंत श्रद्धा एवं सम्मान भाव से देखते थे। पुजारी प्रतिदिन सुबह मंदिर आ जाते। दिन भर भजन-पूजन करते, लोगों को विश्वास हो गया था कि यदि हम अपनी समस्या पुजारी को बता दें तो वह हमारी बात बिहारी जी तक पहुंचा कर निदान करा देंगे।

एक तांगे वाले ने भी सवारियों से पुजारी की भक्ति के बारे में सुन रखा था। उसकी बड़ी इच्छा होती कि वह मंदिर आए, लेकिन सुबह से शाम तक काम में लगा रहता क्योंकि उसके पीछे उसका बड़ा परिवार भी था। उसे इस बात काम हमेशा दुख रहता कि पेट पालने के चक्कर में वह मंदिर नहीं जा पा रहा। वह लगातार ईश्वर से दूर हो रहा है। उसके जैसा पापी शायद ही कोई इस संसार में हो। यह सब सोचकर उसका मन ग्लानि से भर जाता था। इसी उधेड़बुन में फंसा उसका मन और शरीर इतना सुस्त हो जाता कि कई बार काम भी ठीक से नहीं कर पाता। घोड़ा बिदकने लगता, तांगा डगमगाने लगता और सवारियों की झिड़कियां भी सुननी पड़तीं।

तांगे वाले के मन का बोझ बहुत ज्यादा बढ़ गया, तब वह एक दिन मंदिर गया और पुजारी से अपनी बात कही- मैं सुबह से शाम तक तांगा चलाकर परिवार का पेट पालने में व्यस्त रहता हूं. मुझे मंदिर आने का भी समय नहीं मिलता. पूजा- अनुष्ठान तो बहुत दूर की बात है।

पुजारी ने गाड़ी वान की आंखों में अपराध बोध और ईश्वर के कोप के भय का भाव पढ लिया। पुजारी ने कहा- तो इसमें दुखी होने की क्या बात है? तांगे वाला बोला- मुझे डर है कि इस कारण भगवान मुझे नरक की यातना सहने न भेज दें। मैंने कभी विधि-विधान से पूजा-पाठ किया ही नहीं, पता नहीं आगे कर पाउं भी या नहीं। क्या मैं तांगा चलाना छोड़कर रोज मंदिर में पूजा करना शुरू कर दूं?

पुजारी ने गाड़ी वान से पूछा- तुम गाड़ी में सुबह से शाम तक लोगों को एक गांव से दूसरे गांव पहुंचाते हो। क्या कभी ऐसा भी हुआ है कि तुमने किसी बूढ़े, अपाहिज, बच्चों या जिनके पास पास पैसे न हों, उनसे बिना पैसे लिए तांगे में बिठा लिया हो? गाड़ी वान बोला- बिल्कुल, अक्सर मैं ऐसा करता हूं। यदि कोई पैदल चलने में असमर्थ दिखाई पड़ता है तो उसे अपनी गाड़ी में बिठा लेता हूं और पैसे भी नहीं मांगता।

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पुजारी यह सुनकर खुश हुए। उन्होंने गाड़ी वान से कहा- तुम अपना काम बिलकुल मत छोड़ो। बूढ़ों, अपाहिजों, रोगियों और बच्चों और परेशान लोगों की सेवा ही ईश्वर की सच्ची भक्ति है। जिसके मन में करुणा और सेवा की भावना हो, उनके लिए पूरा संसार मंदिर समान है। मंदिर तो उन्हें आना पड़ता है जो अपने कर्मों से ईश्वर की प्रार्थना नहीं कर पाते। तुम्हें मंदिर आने की बिलकुल जरूरत नहीं है। परोपकार और दूसरों की सेवा करके मुझसे ज्यादा सच्ची भक्ति तुम कर रहे हो। ईमानदारी से परिवार के भरण-पोषण के साथ ही दूसरों के प्रति दया रखने वाले लोग प्रभु को सबसे ज्यादा प्रिय हैं। यदि अपना यह काम बंद कर दोगे तो ईश्वर को अच्छा नहीं लगेगा पूजा-पाठ,भजन-कीर्तन ये सब मन को शांति देते हैं। मंदिर में हम स्वयं को ईश्वर के आगे समर्पित कर देते हैं। संसार के जीव ईश्वर की संतान हैं और इनकी सेवा करना ईश्वर की सेवा करना ही है।

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