Hridaynarayan Dixit
हृदयनारायण दीक्षित

भारतीय चिन्तन में समग्रता में विचार मूल आवश्यकता है। वैदिक पूर्वजों ने संसार को समग्रता से देखा था। उन्होंने संपूर्ण अस्तित्व को ध्यान से देखा। आगमन और निगमन पद्धति से भी जांचा। अपनी-अपनी अनुभूति। अपनी अपनी समझ। लेकिन वास्तविक अनुभूति। संसार के प्रत्येक अणु और परमाणु समग्रता के ही भाग हैं। इस समग्रता में भूमि, जन और वनस्पतियां भी सम्मिलित हैं। संसार का बड़ा भाग दिखाई पड़ रहा है। एक और बड़ा भाग दिखाई नहीं पड़ता। बहुत बड़ा भाग अव्यक्त है।

संपूर्णता में चांद, तारे, सूरज और सभी ग्रह, उपग्रह, नदियां और पर्वत सहित ज्ञेय और अज्ञेय सम्मिलित हैं। ऋग्वेद के ऋषियों ने समग्रता से अभिभूत होकर इसका नाम अदिति रखा। अदिति एक वैदिक देवता हैं। लेकिन उनका प्रवाह और आच्छादन धरती आकाश को भी आवृत्त करता है। ऋषि कहते हैं, अदिति माता हैं। अदिति पिता हैं और अदिति हमारे पुत्र भी हैं। इस संसार में अब तक जो हो गया है और जो आगे होने वाला है सब अदिति है।

अस्तित्व संपूर्ण है और संपूर्णता दो नहीं होती। बृहदारण्यक उपनिषद के एक मंत्र में कहते हैं, पूर्ण मदः पूर्ण मिदं पूर्णात पूर्ण मुद्च्यते। यह पूर्ण है। वह पूर्ण है। उस पूर्ण से यह पूर्ण निकला है। पूर्ण में पूर्ण घटाओ तो पूर्ण ही बचता है। यूरोप के विद्वानों को यह मंत्र अटपटा लगा। सामान्यतया पूर्ण में पूर्ण घटाओ तो शून्य बचना चाहिए। ऋषि ने इस मंत्र में पूर्ण को स्पष्ट कर दिया है। दो पूर्ण नहीं हो सकते। इसी पूर्णत्व को ऋषियों ने ब्रह्म कहा है। अध्यात्म और दर्शन में रुचि लेने वाले मनीषी थोड़ी सी चूक करते हैं। कुछ लोग ब्रह्म को ब्रह्मा कहकर उसका व्यक्तित्व गढ़ने का प्रयास करते हैं।

ब्रह्म वैयक्तिक नहीं है। वह समूचे अस्तित्व में व्याप्त है। उसके सभी अंश एक हैं। ब्रह्म की तुलना में समूचे अस्तित्व के लिए ब्रह्माण्ड शब्द प्रयुक्त होता है। लेकिन उपनिषद दर्शन में ब्रह्म शब्द की ही महत्ता है और वह संपूर्णता का द्योतक है। प्रश्न है कि ब्रह्मांड को उसकी संपूर्णता में क्या कहा जाए? पहले यह समझते हैं कि ब्रह्मांड का मूल अर्थ क्या है? ब्रह्माण्ड में ब्रह्म के साथ अण्ड शब्द जुड़ा है।

ब्रह्म विराट है और ब्रह्माण्ड इस संपूर्ण ब्रह्म का अण्डा। वैज्ञानिकों ने सृष्टि सृजन के पहले की स्थिति का विचार किया है। विज्ञान के अनुसार लाखों बरस पहले एक समय ऐसा था कि अस्तित्व की संपूर्ण ऊर्जा एक बिंदु पर थी। सारी दुनिया की नदियां, सारी दुनिया की भूमि, आकाश, सूर्य, चन्द्र, सभी जीव, और सभी प्राणी और सारी ऊर्जा एक बिंदु पर समाहित थी। एक बिंदु में ही समूची दुनिया की ऊर्जा और द्रव्य समाहित थे। वैज्ञानिक कार्ल सागन ने अपनी पुस्तक ‘कॉसमोस‘ में लिखा है कि, इसे हम कॉस्मिक एग कह सकते हैं। अर्थात ब्रह्म अण्ड कह सकते हैं। स्टीफन हॉकिंग का यही विचार था। ऋतुवें और समय भी अण्डे के भीतर थे। यह अण्डा फूट गया और इसके भीतर की ऊर्जा बाहर आ गई। ब्रह्म और ब्रह्माण्ड के बीच में फर्क करना चाहिए। ब्रह्म अस्तित्व का पर्याय है और ब्रह्माण्ड उसका सूक्ष्म रूप। ब्रह्म वैदिक ऋषियों की गहन जिज्ञासा रहा है। इसी ब्रह्म को लेकर बादरायण ने ब्रह्मसूत्र लिखे थे। ब्रह्मसूत्र का पहला वाक्य ध्यान देने योग्य है-अथातो ब्रह्म जिज्ञासा। अर्थात हम ब्रह्म की जिज्ञासा करते हैं।

तैत्तिरीय उपनिषद में ब्रह्म की जिज्ञासा है। उत्तर वैदिक काल का वातावरण अग्निधर्मा था। सारी दुनिया को जान लेने की जिज्ञासा थी। इस उपनिषद के अनुसार भृगु नाम के एक प्रख्यात ऋषि थे। उनके चित्त में ब्रह्म को जान लेने की इच्छा थी। वह वरुण के पुत्र थे। वरुण ऋग्वेद में एक देवता हैं। लेकिन इस उपनिषद के एक ऋषि हैं। उन्हीं के पुत्र भृगु परम विद्वान थे। उन्होंने पिता से कहा, मैं ब्रह्म को जानना चाहता हूं। आप मुझे कृपा करके ब्रह्म तत्व समझाइए। वरुण ने पुत्र भृगु से कहा, अन्न, प्राण, नेत्र, श्रोत्र, मन और वाणी यह सभी ब्रह्म की उपलब्धि के द्वार हैं। इन सब में ब्रह्म की सत्ता प्रकट हो रही है।

प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले सब प्राणी जिनसे उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर जिनके सहयोग से, जिनका बल पाकर यह सब जीते हैं-जीवनोपयोगी क्रिया करने में समर्थ होते हैं और महाप्रलय के समय जिनमें विलीन हो जाते हैं, उनको वास्तव में जानने की (पाने की) इच्छा कर। वे ही ब्रह्म हैं। भृगु ने तदनुसार परिश्रम किया। भृगु ने पिता के उपदेश के अनुसार निश्चय किया कि अन्न ही ब्रह्म है। पिता द्वारा बताए गए ब्रह्म के लक्षण अन्न में पाए जाते हैं।

समस्त प्राणियों का जीवन अन्न से सुरक्षित रहता है। इसी उपनिषद में अन्न की निंदा न करने के निर्देश हैं। भृगु ने निश्चय किया कि अन्न ही ब्रह्म है। उन्होंने पिता को अपना मत बताया। पिता ने उनकी बात पर मौन साध लिया। भृगु ने फिर से प्रार्थना की कि आप मुझे ब्रह्म तत्व समझाइए। पिता ने कहा कि तुम तप के द्वारा ब्रह्म को समझने की कोशिश करो। उसने तप किया। भृगु ने यह निश्चय किया कि प्राण ही ब्रह्म है। ब्रह्म के लक्षण प्राण में पाए जाते हैं। प्राणी प्राण से उत्पन्न होते हैं। प्राण का आना-जाना बंद हो जाए या प्राण द्वारा अन्न ग्रहण न किया जाए तो प्राणी जीवित नहीं रह सकते।

मृत शरीर में प्राण नहीं रहते। पिता ने फिर कहा कि, प्राण सूक्ष्म तो है लेकिन ब्रह्म को जानने के लिए पर्याप्त नहीं है। भृगु ने फिर निश्चय किया कि यह मन ही ब्रह्म है। मन शक्तिशाली है। पिता फिर भी संतुष्ट नहीं हुए। फिर विज्ञान को ब्रह्म कहा गया। अंतिम अनुवाक में कहते हैं कि उसने आनंद को ब्रह्म जाना। सभी प्राणी आनंद से उत्पन्न होते हैं। आनंद से ही जीवित रहते हैं। आनंद से ही इस लोक को छोड़ते हैं। आनंद में ही प्रविष्ट हो जाते हैं। संसार में कोई भी दुखी नहीं रहना चाहता।

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आनंद ब्रह्म है। प्रत्येक जीव की आत्मा की प्यास आनंद ही है। सब आनंद के भूखे हैं। आनंद सबका ध्येय है। आनंद भौतिक भी है और आध्यात्मिक भी। आनंद प्राप्ति के लिए किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। वामपंथी विद्वान भारतीय दर्शन को भाववादी बताते हैं। कहते हैं कि भारतीय दर्शन में भौतिक संसार को सुंदर बनाने की योजना नहीं है और न ही स्वीकारोक्ति। लेकिन इस चर्चा में सीधे अन्न को ही ब्रह्म कहा गया है। गीता में ब्रह्म विवेचन वाला एक श्लोक बहुत चर्चित है।यज्ञ प्रतीक में श्रीकृष्ण कहते हैं, ब्रह्म ही यज्ञ है और ब्रह्म ही समिधा है। स्तुतियां पढ़ने और अग्नि को समिधा अर्पित करना भी ब्रह्म है। अग्नि ब्रह्म है। यज्ञ की सारी कार्यवाही ब्रह्म है। ब्रह्म ही ब्रह्मा को नमस्कार करता है। यहां सारा द्वैत समाप्त हो जाता है। जैसे यह आलेख ब्रह्म के चित्त का आयोजन है। आयोजन भी ब्रह्म है। प्रयोजन भी ब्रह्म है। धरती ब्रह्म है। आकाश ब्रह्म है। हम आप सब ब्रह्म हैं। हमसे पहले जो इस संसार में हुआ है और जो आगे होने वाला है सब ब्रह्म है। ब्रह्म को नमस्कार है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व पूर्व विधानसभा अध्यक्ष हैं।)

(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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