Shyam Kumar
श्याम कुमार

प्रयागराज (इलाहाबाद) की होली (Holi festival) प्रसिद्ध है। वहां होलिका-दहन के बाद दो दिन रंग खेला जाता है। दूसरे दिन की होली और भी अधिक जोरदार होती है। दोनों दिन सारा शहर रंग में नहाया रहता है। दिन में लगभग एक बजे तक रंग चलता है, जिसके बाद लोग नहा-धोकर एक-दूसरे के यहां होली (Holi festival) मिलने जाते हैं। सायंकाल अनेक स्थानों पर सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। वैसे तो प्रयागराज में तीसरे दिन भी बड़ी जबरदस्त होली होती है और बड़े उत्साह से मनाई जाती है। किन्तु उक्त होली ठठेरी बाजार क्षेत्र तक सीमित रहती है।

पचास-साठ साल पहले प्रयागराज की सड़कों पर शिवकुटी के मेले वाले दिन तथा होली (Holi festival) वाले दिन सायंकाल चौक एवं विवेकानंद मार्ग पर कतिपय स्थानों पर सड़कों के किनारे चौकियों के मंच बना दिए जाते थे, जिन पर नर्तकियों के नाच-गाने होते थे। किन्तु उनमें फूहड़ता नहीं होती थी। आज के समय में सड़कों पर नर्तकियों के नाच हों तो शोहदे उन्हें उठा ले जाएं तथा गुण्डों में गोलियां चल जाएं। लेकिन उस समय आज की तुलना में आपराधिक मनोवृत्ति कम होती थी। मुझे अपने बचपन की याद है कि प्रायः घरों में केवल कुंडियां लगा दी जाती थीं, ताले लगाने की जरूरत नहीं होती थी।

प्रयागराज में ‘रंगभारती’ की होली की बहुत ख्याति थी। मैं बहुत बड़े क्षेत्र की कल्याण समिति का अध्यक्ष था, अतः मेरे नेतृत्व में मुहल्ले के दुर्गादेवी पार्क में होलिका-दहन (Holi festival) होता था। किन्तु हम होलिका-दहन में लकड़ी की बर्बादी से बचते थे तथा उसका स्वरूप आदर्श रहता था। दोनों दिन पूर्वान्ह में परी भवन से ‘रंगभारती’ की बरात निकलती थी, जो क्षेत्रभर में घूमती थी। उस बरात में अनगिनत लोग शामिल होते थे, जिनमें बच्चे-जवान-बूढ़े, तीनों पीढ़ियों के लोग रहते थे। बरात इतनी लम्बी होती थी कि एक छोरवालों को दूसरे छोरवालों का पता नहीं लग पाता था। इस लम्बाई के कारण बरात में ढोल-नगाड़े वालों के तीन समूह रखने पड़ते थे। एक आगे, दूसरा बीच में तथा तीसरा पीछे रहता था। तीनों समूहों की धुन पर पूरी बरात जमकर नाचती थी। वह अद्भुत दृश्य होता था!

Holi festival

बरात में घुसकर कोई शराबी उत्पात न करने लगे, इसलिए पुलिस की पर्याप्त व्यवस्था रहती थी। मैं अपने कुछ लोगों को भी बरात में पूरे समय चौकन्ना रखता था। एक बार एक व्यक्ति बरात में आकर सिर पर खाली बोतल लिए हुए नाचने लगा। वह नशे में था, इसलिए मुझे आशंका हुई कि कहीं वह नाचते-नाचते किसी के सिर पर बोतल न पटक दे। मैंने साथ चल रहे पुलिसबल को चुपके से इशारा किया, जिसने बड़ी चतुराई से उस व्यक्ति को दबोच लिया और वहां से हटा दिया। ‘रंगभारती’ की बरात की यह विशेषता थी कि वह न केवल विवेकानंद मार्ग व अन्य सड़कों पर घूमती थी, बल्कि शहराराबाग, गोसाईंटोला, लखपतराय लेन, बहादुरगंज, ईदगाह, मुहत्शिमगंज आदि की गलियों में भी घूमती थी।

मैंने देखा था कि विभिन्न शहरों में होली की जो बरातें निकलती हैं, वे केवल मुख्य सड़कों से होकर गुजरती हैं। चूंकि मुहल्लों की भीतरी गलियों में स्थित घरों की स्त्रियां होली में सड़कों पर नहीं आती हैं, इसलिए उन्हें होली की बरातों का आनंद नहीं मिल पाता है। इसलिए मैंने यह नई परिपाटी शुरू की कि ‘रंगभारती’ की होली- बरात को विशेष रूप से अपने क्षेत्र की गलियों से होकर निकालने लगा। ‘रंगभारती’ की बरात जब गलियों में घूमती थी तो वहां लोगों का भारी उत्साह देखने लायक होता था। बरात क्षेत्र की हर गली से गुजरती थी, जिससे भीतरी हिस्सों में उसकी धूम मच गई। क्षेत्र की गलियों में हमारी बरात का बड़ी बेसब्री से इंतजार हुआ करता था। बरात के स्वागत के लिए घरों में गुझिया-पापड़ आदि के थाल तैयार रहते थे। मैं बरात को हरिजन बस्ती में भी विशेष रूप से ले जाने लगा, ताकि वहां के लोग अपने हिन्दू धर्म के महापर्व का जमकर आनंद लें। वहां बरात कुछ देर रुकती थी तथा सब एक-दूसरे से गले मिलते थे। उसके बाद उस हरिजन बस्ती के पुरुष व बच्चे भी हमारी बरात में शामिल हो जाते थे।

सायंकाल परी भवन के लम्बे नृत्य- हॉल में बच्चों एवं युवाओं के नृत्य-कार्यक्रम होते थे। वे नृत्य-कार्यक्रम दोनों रंगों वाले दिन तो होते ही थे, उसके बाद भी तीन-चार दिन चलते थे। बच्चे दिन में दो बजे से आने लगते थे तथा रात लगभग बारह बजे तक उनका तांता लगा रहता था। सैकड़ों की संख्या में बच्चे आते थे। ‘रंगभारती’ के उस नृत्य-आयोजन की इतनी धूम थी कि बड़ी दूर-दूर से बच्चे आते थे। नगाड़ों की तेज धुन पर तमाम बच्चे इतना अच्छा नृत्य करते थे कि देखकर आश्चर्य होता था। बाद में तमाम बच्चे पिता बन गए थे तो उनके बच्चे उस आयोजन में आने लगे। युवाओं की टोलियां भी लगातार आती रहती थीं। युवाओं के नृत्य-कार्यक्रम अलग चलते थे। अच्छा नृत्य करने वाले बच्चों व युवाओं को पुरस्कार दिये जाते थे। इस नृत्य-आयोजन में ‘रंगभारती कला अकादमी’ के ब्रेकडांस के विद्यार्थी भी बड़ी धूम मचाते थे। इसके अलावा बाहर सड़क पर भी ‘रंगभारती’ द्वारा दोनों दिन जोरदार होली-मिलन का कार्यक्रम सम्पन्न होता था।

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बाद में जब मैं लखनऊ रहने आ गया तो प्रयागराज में ‘रंगभारती’ की होली की वह यादगार रौनक बंद हो गई, जिसकी वहां पर लोग बहुत उलाहना देते हैं। लखनऊ में होली एक ही दिन होती है, इसलिए मैं चाहता हूं कि दूसरे दिन प्रयागराज जाकर होली मनाऊं तथा वहां फिर पहले की तरह ‘रंगभारती’ की होली की धूमधाम हुआ करे। लेकिन लखनऊ में पत्रकारिता की व्यस्तता के कारण संभव नहीं हो पाता है। वहां मेरा ‘परीभवन’ भी अब नहीं है। उतने बड़े आयोजन के लिए काफी पहले से बहुत तैयारी करनी पड़ती है। बहुत बड़ा आर्थिक भार भी रहता है, जो मैंही उठाता था। अन्य लोगों के लिए उतनी चुस्त प्रबंध-व्यवस्था कर पाना संभव नहीं हो पाता है। आज के समय में शराबखोरी एवं गुण्डागर्दी की प्रवृत्ति इतनी अधिक हो गई है कि सार्वजनिक आयोजन में यदि कोई घटना हो जाय तो सारा किया-कराया व्यर्थ हो सकता है। पुराने समय में होली पर यत्रतत्र कीचड़ भी चला करता था, किन्तु अब ऐसा बिलकुल नहीं होता है। वह बुराई तो बंद हो गई, किन्तु शराबखोरी व गुण्डागर्दी की बुराई बेइंतहा बढ़ गई है। शराब ने होली महापर्व का नाश कर डाला है।

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‘रंगभारती’ की होली की बरात का विचार एक घटना से उत्पन्न हुआ था। मुहल्ले में मुन्नालाल यादव, दीपक, राकेश आदि लड़के होलिका-दहन का चंदा लेने के लिए निकलते थे तथा क्षेत्र कल्याण समिति के अध्यक्ष के नाते मुझे भी साथ चलने पर जोर देते थे। कोई खास चंदा नहीं होता था, फिर भी मैं दो साल उनके साथ गया। मैं बाहर रहता था और लड़के चंदा लेने जाते थे। दूसरे साल एक धनी सज्जन ने चंदे में चवन्नी दी, जिसके बाद मैंने मुहल्ले के लड़कों को बुलाकर कहा कि अब भविष्य में किसी से कोई चंदा नहीं लिया जाएगा तथा होली का सम्पूर्ण आयोजन मैं अपने व्यय पर किया करूंगा। मेरे पिता जी समाजसेवा के अनगिनत कार्यों के साथ तमाम धार्मिक, सांस्कृतिक आदि कार्यकलाप भी अपने पैसे से ही किया करते थे तथा उनसे मुझे वही सीख मिली। जब मैंने मोहल्ले के लड़कों को अपना फैसला सुनाया, उसी समय मेरे मन में अपने क्षेत्र में होली की बरात निकालने का भी विचार उत्पन्न हुआ। किशोरावस्था से मेरी प्रवृत्ति हमेशा लीक से हटकर कुछ नया करने की रही है। इसीलिए जब मैंने ‘रंगभारती’ की होली-बरात निकालने का निर्णय किया तो उसे आम बरातों की परम्परा के बजाय अपने क्षेत्र की गलियों से होकर निकालने का निश्चय किया। मैंने अपने जीवन में असंख्य नई चीजों की शुरुआत की तथा नए-नए प्रयोग किए। ईश्वर की कृपा से मैं लगभग सदैव सफल हुआ। जो लोग शुरू में मेरे नए प्रयोगों की आलोचना करते थे, वे भी बाद में मेरे कायल हो जाते थे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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