Sanjay Tiwari
संजय तिवारी

पहले कोविड के कारण और फिर रूस-यूक्रेन युद्ध (ussia ukraine war update) के चलते विश्व की आपूर्ति श्रृंखला चौपट हो चुकी है। सबसे बड़ा संकट खाद्यान्न का है। ऐसी परिस्थिति में अब मुफ्त में राशन बांटना किसी के लिए संभव नहीं। हालात बदतर हैं। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार ने इस दिशा में पहल शुरू कर दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) ने रेवडी कल्चर (food scarcity) पर पहले ही अपना रुख स्पष्ट कर दिया था। (ussia ukraine war update) अभी तक कोरोना के कारण महीने में दो बार बांटे जाने वाले राशन में (food scarcity) से एक के लिए योगी सरकार ने कुछ कीमत निर्धारित कर दिया है। यह पहल करने के ठोस कारण हैं। इसको सभी को समझना चाहिए।

विश्व मे 80 करोड़ लोगों के अन्नाविहीन हो जाने का संकट है। विश्व आर्थिक मंच (WEF) की 2022 की वार्षिक बैठक में दुनिया भर के दिग्गजों ने  वैश्विक खाद्य सुरक्षा को लेकर चर्चा की है। विशेषज्ञों ने कहा है कि रूस-यूक्रेन युद्ध (ussia ukraine war update) से अनिश्चित सप्लाई चेन, उर्वरक की कीमतों में वृद्धि और अनाज के निर्यात अवरुद्ध होने से दुनिया भर में खाद्य असुरक्षा बढ़ गई है। इन लोगों ने वैश्विक खाद्य (food scarcity) समस्या को जलवायु संकट के साथ-साथ हल करने का आह्वान किया है।

बैठक में दिग्गजों ने कहा कि यूक्रेन में अस्थिरता पहले से ही अनिश्चित वैश्विक खाद्य सुरक्षा परिस्थिति को और गंभीर होने की चेतावनी दे रही है। उर्वरकों की बढ़ती कीमतों और यूक्रेन से निर्यात बाधित होने से स्थिति विकट हो गयी है। क्योंकि इस संकट से अब हर रात 80 करोड़ लोगों के भूखे रहने का अनुमान है। यूक्रेन के बंदरगाहों की रूसी नाकेबंदी ने दुनिया के विभिन्न देशों का ध्यान बढ़ती खाद्य असुरक्षा की ओर खींचा है।

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ऐसा नहीं है कि यह स्थिति अचानक आयी है। इसको समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा। वर्ष2008 का वैश्विक वित्तीय संकट एक ऐसा वित्तीय संकट था जो संयुक्त राज्य अमेरिका में चलनिधि (लिक्विडिटी ट्रैप) की कमी से पैदा हुआ। यह बड़ी वित्तीय संस्थाओं के पतन, राष्ट्रीय सरकारों द्वारा बैंकों की जमानत और दुनिया भर में शेयर बाज़ार की गिरावट का कारक बना। कई क्षेत्रों में, आवास बाज़ार को भी नुकसान उठाना पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप कई निष्कासन, प्रतिबंध और दीर्घकालिक रिक्तियां सामने आईं।

दुनिया के अर्थशास्त्रियों का मानना है कि यह 1930 के दशक की महान मंदी के बाद का सबसे खराब वित्तीय संकट था। इसकी वजह से प्रमुख व्यवसायों की विफलता, ट्रिलियन अमेरिकी डॉलरों में अनुमानित उपभोक्ता संपत्ति में ह्रास, सरकारों द्वारा पर्याप्त वित्तीय प्रतिबद्धताएं और आर्थिक गतिविधियों में महत्त्वपूर्ण गिरावट देखी गई। इसका व्यापक प्रभाव दुनिया के लगभग सभी देशों पर पड़ा था। इस स्थिति से सम्हलने में दुनिया को दो तीन वर्ष लग गए।

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इस समय विश्व उससे भी गंभीर चुनौतियों से घिर गया है। यह आर्थिक संकट अब तक के सभी संकटों से बहुत बड़ा है क्योंकि यह किसी एक बड़ी आर्थिक व्यवस्था या विकसित अर्थव्यवस्था के गड़बड़ाने से नही पैदा हुआ है। पिछले दो वर्षों में कोविड कई महामारी ने विश्व मे हर प्रकार की उस आर्थिक श्रृंखला को तहस नहस कर दिया है जो आपस के सहयोग और समन्वय से स्थापित होकर चल रही थी। उत्पादन, आयात, निर्यात, पैकेजिंग, और शिपमेंट को इस महामारी ने बुरी तरह से प्रभावित किया है।

पिछले कुछ महीनों में चीन के कई बड़े शहरों में कोविड के नए संक्रमण के कारण उत्पन्न विषम स्थितियों ने आपूर्ति श्रृंखला को तोड़ दिया है। इसी में रूस और यूक्रेन के बीच छिड़े युद्ध ने स्थिति को और भी गंभीर बना दिया है। भारत ने अपनी ईंधन क्षमता को स्थिर रखने के लिए रूस से तेल का आयात शुरू किया है। गेहूं के निर्यात पर प्रतिबन्ध लगाया है लेकिन इस उपाय से बहुत लंबे समय तक इस वैश्विक प्रभाव ने नहीं बचा जा सकता। दुनिया में सभी तरह की मुद्रा का अवमूल्यन हो रहा। करेंसी के मूल्य की गिरावट से विश्व संकट में है। पूरा भूराजनीतिक परिदृश्य बहुत तेजी से बदल रहा है। दुनिया के अनेक देश भारी कर्ज से तबाही के कगार पर हैं।

अमेरिका में डोनल्ड ट्रम्प के कार्यकाल में ये स्थितियां नियंत्रण में थीं। ट्रम्प ने उपभोक्ता बाजार को बिगड़ने से रोका था लेकिन बाइडेन के कार्यकाल में उन्होंने अपना पूरा ध्यान रूस पर केंद्रित कर दिया जिसके परिणामस्वरूप आज दुनिया गंभीर चुनौतियों में घिर गई है। ट्रम्प ने चीन को नियंत्रित कर उपभोक्ता बाजार का संतुलन बिगड़ने नहीं दिया था। बाइडेन ने चीन को खुला छोड़ दिया और अपना पूरा ध्यान रूस को दबाने में लगा दिया जिसके परिणाम स्वरूप दुनिया रूस और यूक्रेन के युद्ध की भयानक विभीषिका झेल रही है।

यदि विश्व की वर्तमान दशा और आर्थिक मंदी की चुनौतियों की ठीक से समीक्षा की जाय तो कोई भी इसी नतीजे पर पहुचेगा कि इस समय दुनिया अतिगंभीर मुद्रास्फीति की चपेट में है। पिछले दो-ढाई दशक को देखें, तो हम पाते हैं कि धनी देशों, खासकर अमेरिका, में मुद्रास्फीति की स्थिति नहीं रही थी और दाम नियंत्रण में थे। इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि चीन, पूर्वी एशिया, दक्षिण एशिया और पूर्वी यूरोप के वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में आने से उत्पाद बड़ी मात्रा में और सस्ती दरों पर उपलब्ध हो रहे थे। दूसरा कारण यह रहा कि दुनिया के कई हिस्सों में आबादी का स्वरूप बदला और युवाओं की संख्या बढ़ने से कार्य बल की आपूर्ति में बढ़ोतरी हुई।

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श्रम आपूर्ति अधिक होने से, अगर उसकी मांग स्थिर रहती है या कुछ बढ़ती भी है, उत्पादक पर वेतन व भत्तों को लेकर अधिक दबाव नहीं रहता है। अगर मांग अधिक होती और श्रमिक कम होते, तो वेतन बढ़ाना पड़ता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि श्रम की समान उपलब्धता बनी रही। अब यह स्थिति बदलने लगी है और आबादी में अधिक आयु के लोगों की संख्या बढ़ने लगी है। इसके साथ ही उत्पादन प्रक्रिया में तकनीक का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर बढ़ा है।

इन कारकों की वजह से कीमतें नीचे रही थीं, लेकिन कोरोना महामारी ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका दे दिया। परिणाम यह हुआ किमहामारी की रोकथाम की कोशिशों के कारण आपूर्ति श्रृंखला में व्यापक अवरोध उत्पन्न हुआ। यह केवल उत्पादित वस्तुओं के साथ ही नहीं हुआ, बल्कि खाने-पीने की चीजों की आपूर्ति भी बाधित हुई। एक तो महामारी और अब यह मुद्रास्फीति, तो ऐसी स्थिति में देशों को भी कड़े फैसले लेने पड़ रहे हैं, जिनसे दूसरे देशों की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ रहा है। उदाहरण के लिए, इंडोनेशिया ने पाम ऑयल के निर्यात पर रोक लगा दी है।

पिछले साल भारत ने वहां से अस्सी लाख टन पाम ऑयल का आयात किया था। पाम ऑयल का उपभोग केवल परिवारों में नहीं होता है। बाजार में बिकनेवाले बहुत सारे खाद्य पदार्थ इससे बनाये जाते हैं। उनके दाम भी बढ़ रहे हैं। पिछले साल भारत समेत दुनिया के अधिकतर देशों में स्थिति में धीरे-धीरे सुधार होने लगा था और अनुमान लगाया जा रहा था कि दो-तीन सालों में सब कुछ सामान्य हो जायेगा, लेकिन तभी रूस-यूक्रेन युद्ध के रूप में बड़ा संकट हमारे सामने उपस्थित हो गया है।

इस मसले में तेल और प्राकृतिक गैस को लेकर अधिक चर्चा हो रही है। वह एक स्तर पर ठीक भी है, क्योंकि यूरोप की मुद्रास्फीति में इसका बड़ा योगदान है क्योंकि रूस उसका सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है। यह सर्वविदित तथ्य है कि जब तेल और गैस के दाम बढ़ते हैं या उनकी आपूर्ति में बाधा आती है, जो अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र पर असर होता है। पाबंदियों के कारण कई देशों को दूसरे देशों से तेल और गैस लेना होगा। इससे दाम बढ़ना स्वाभाविक है।

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बिजली और यातायात का खर्च बढ़ना इसके साथ सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है,साथ ही, कई तरह के खनिज का मामला भी है। यह भारत की अपनी ताकत और साख है कि हमने अभी भी रूस से तेल खरीदना जारी रखा है और अपने घरेलू उपयोग के लिए हमारे पास ईंधन की फिलहाल कमी नहीं है।

रूस और यूक्रेन गेहूं, सूरजमुखी के तेल आदि विभिन्न खाद्य पदार्थों के भी बड़े उत्पादक हैं। इस युद्ध के कारण यूरोप और पश्चिम एशिया समेत दुनिया के कई हिस्से खाद्य संकट के कगार पर हैं। इस कारण भारत समेत विश्व भर में खाने-पीने की चीजें महंगी हो गयी हैं। इस युद्ध और रूस पर व रूस द्वारा लगाये गये प्रतिबंधों के कारण आपूर्ति शृंखला भी प्रभावित हुई है, जो पहले से ही दबाव में है। चीन की जीरो कोविड पॉलिसी भी मुद्रास्फीति को बढ़ा रही है।

हालिया लॉकडाउन की वजह से चीन से और चीन में सामानों की ढुलाई पर असर पड़ा है। इस संबंध में एक उदाहरण सेमीकंडक्टर का है, जिसका इस्तेमाल डिजिटल सामानों के साथ-साथ वाहनों में भी होता है। सेमीकंडक्टर की आपूर्ति बाधित होने से हमारे देश में चारपहिया गाड़ियों की प्रतीक्षा अवधि बहुत बढ़ गयी है। चिप की तंगी डेढ़-दो साल से बनी हुई है। यह भी विडंबना ही है कि भारत और अमेरिका समेत अनेक देशों के केंद्रीय बैंकों ने मुद्रास्फीति को काबू में लाने के लिए ब्याज दरों में बढ़ोतरी की है, लेकिन इससे भी महंगाई बढ़ने की आशंका पैदा हो गयी है क्योंकि अब कर्ज महंगे हो जायेंगे।

महामारी के दौर में यही समझ थी कि अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए सस्ती दरों पर पूंजी मुहैया कराया जाए ताकि औद्योगिक और कारोबारी गतिविधियां बढ़ें, रोजगार के अवसर पैदा हों, लोग खरीदारी कर सकें और मांग बढ़े. इसका फायदा भी हुआ, पर रूस-यूक्रेन युद्ध ने फिर समस्या को वहीं पहुंचा दिया है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का आकलन है कि तीसरी तिमाही में स्थिति नियंत्रण में आ सकती है, पर अनेक जानकार इससे सहमत नहीं हैं क्योकि अभी युद्ध सबसे बड़ी चुनौती है और सभी को यह प्रयास करना चाहिए कि यह तुरंत रुके।

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यह मामला जितना अधिक चलेगा, हालात खराब होते जायेंगे। चीन को भी कोविड की रोकथाम के अपने कड़े नियमों पर पुनर्विचार करना चाहिए। अभी की स्थिति में भारत के लिए भी मुश्किलें हैं। बीते दो-तीन दशक में हमारी अर्थव्यवस्था का विस्तार तो हुआ है, लेकिन उत्पादन के स्तर पर हम विविधता लाने में सफल नहीं हो सके हैं। अभी तक यह सोचा जा रहा था कि जिन क्षेत्रों में निर्यात बढ़ रहा है, उस पर ध्यान दिया जाए तथा अन्य जिन चीजों की जरूरत होगी, उसे हम बाहर से खरीद लेंगे। इसमें परेशानी यह हुई कि वैश्विक मुद्रास्फीति ने हमारे हिसाब को गड़बड़ा दिया।

पिछले साल से ही औद्योगिक उत्पादन में प्रयुक्त होनेवाली वस्तुओं की लागत बहुत बढ़ने लगी थी। अभी भारत और अन्य कई देशों के सामने चुनौती यह है कि कुछ चीजों के निर्यात बढ़ने से लाभ तो हो रहा है, लेकिन जैसे ही आप आयात कर रहे हैं, तो लाभ उसमें चला जा रहा है। जब तक वैश्विक स्तर पर दामों में कमी नहीं आयेगी, भारत में भी मुद्रास्फीति से राहत मिलने की आशा नहीं की जा सकती है।

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बेहद चिंताजनक आशंका वैश्विक आर्थिक संकट या महामंदी की भी है। अमेरिकी बॉन्ड की कमाई का अनुमान बहुत गिर गया है। ऐसा जब जब हुआ है, तब तब मंदी या वित्तीय संकट की स्थिति पैदा हुई है। ऐसी चिंताजनक स्थिति से निकलने के लिए हमें रूस-यूक्रेन युद्ध को तुरंत रोकने का भरसक प्रयास करना चाहिए तथा चीन को यह कहा जाना चाहिए कि वह आपूर्ति प्रक्रिया को बाधित न होने दे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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