लखनऊ: योगी सरकार में उत्तर प्रदेश पुलिस को मिली खुली छूट का खामियाजा अपराधियों के साथ साथ आम आदमी को भी चुकाना पड़ रहा है। यूपी की बेलगाम पुलिस कब किसे अपराधी बनाकर प्रस्तुत कर दे, पूछताछ के नाम पर किसके साथ हैवानियत की हद पार कर जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। वहीं हत्या जैसे जघन्य अपराध में विवेचना रिपोर्ट लगवाने के लिए उच्च अधिकारियों से लेकर कोर्ट के चक्कर तक लगा रहे हैं। लेकिन रसूखदारों के सामने बिकने वाली यूपी पुलिस हाई कोर्ट के आदेशों की परवाह न करते हुए अपराधियों को बचाने में लगी हुई है। ऐसा ही मामला मुख्यमंत्री के आवासीय जनपद गोरखपुर के राजघाट थाने में देखने को मिला है। जहां हत्या के मामले में विवेचना रिपोर्ट लगवाने के लिए अंबेडकर नगर का पीड़ित परिवार दर दर भटकने को मजबूर है। फिलहाल यूपी पुलिस के बढ़ते आपराधिक रिकॉर्ड को देखते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट (Allahabad High Court) ने नकेल कसने का काम किया है।

थाने में किसी को बुलाने के लिए मंजूरी जरूरी

इलाहाबाद हाईकोर्ट (Allahabad High Court) ने उत्तर प्रदेश सरकार (Government of Uttar Pradesh) को आदेश दिया है कि किसी भी व्यक्ति को, जिसमें एक आरोपी भी शामिल है, थाना प्रभारी की सहमति/अनुमोदन के बिना अधीनस्थ पुलिस अधिकारियों द्वारा मौखिक रूप से पुलिस थाने में तलब नहीं किया जा सकता है। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश दिया है कि किसी भी व्यक्ति को, जिसमें एक आरोपी भी शामिल है, थाना प्रभारी की सहमति/अनुमोदन के बिना अधीनस्थ पुलिस अधिकारियों द्वारा मौखिक रूप से पुलिस थाने में तलब नहीं किया जा सकता है।

किसी भी पुलिस स्टेशन में दर्ज कराई जा सकती है शिकायत

न्यायमूर्ति अरविंद कुमार मिश्रा- I और न्यायमूर्ति मनीष माथुर की खंडपीठ ने आदेश दिया है कि किसी भी पुलिस स्टेशन में शिकायत की जा सकती है, जिसमें जांच की आवश्यकता होती है और आरोपी की उपस्थिति, आपराधिक प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों के तहत निर्धारित कार्रवाई का एक उपयुक्त तरीका है का पालन किया जाना चाहिए, जो ऐसे व्यक्ति को लिखित नोटिस देने पर विचार करता है, लेकिन मामला दर्ज होने के बाद ही। पीठ ने जोर देकर कहा कि केवल पुलिस अधिकारियों के मौखिक आदेशों के आधार पर किसी व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता और गरिमा को खतरे में नहीं डाला जा सकता है।

इस मामले में उच्च न्यायालय के समक्ष एक पत्र याचिका दायर की गई थी जिसमें एक लड़की (सरोजनी) ने दावा किया था कि उसके माता-पिता (रामविलास और सावित्री) को लखनऊ के महिला थाना पुलिस थाने में बुलाया गया था और वह वापस नहीं आए। याचिका को बंदी प्रत्यक्षीकरण के रूप में माना गया और 8 अप्रैल, 2022 को सुनवाई की गई, जब राज्य की ओर से अदालत को सूचित किया गया कि थाने में ऐसी कोई घटना नहीं हुई थी।

इसे भी पढ़ें: स्वतंत्रता के लिए भारतवासियों ने हर मूल्य को चुकाया

सुनवाई की अगली तारीख (13 अप्रैल) को, याचिकाकर्ता सावित्री और रामविलास और उनकी बेटी अदालत के सामने पेश हुए और अदालत को सूचित किया कि कुछ पुलिस कर्मियों ने उन्हें पुलिस स्टेशन बुलाया, और जब वे पहुंचे, तो उन्हें हिरासत में लिया गया और कुछ पुलिस कर्मियो ने धमकी दी। हालांकि, पुलिस ने बिना शर्त माफी मांगी और दावा किया कि याचिकाकर्ताओं को अपमानित करने या परेशान करने का कोई जानबूझकर प्रयास नहीं किया गया था, बल्कि यह एक कांस्टेबल का कदाचार और अवज्ञा थी, और पुलिस के पास याचिकाकर्ताओं के साथ दुर्व्यवहार करने का कोई कारण नहीं था।

मामले के तथ्यों के आलोक में, हाईकोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि भारतीय संविधान या सीआरपीसी में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिसके लिए पुलिस अधिकारी को प्राथमिकी दर्ज किए बिना भी किसी व्यक्ति को समन करने और हिरासत में लेने की आवश्यकता होती है, और वह भी मौखिक रूप से। गौरतलब है कि कोर्ट ने यहां तक ​​कहा कि पुलिस अधिकारियों द्वारा इस तरह की किसी भी कार्रवाई को अनुच्छेद 21 द्वारा परिकल्पित व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के संदर्भ में देखा जाना चाहिए, जिसका अर्थ है कि एक निष्पक्ष, न्यायसंगत और उचित प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए।

इसे भी पढ़ें: राज्य सूचना आयुक्त ने की लंबित प्रकरणों की समीक्षा

Spread the news